Sunday, July 27, 2025
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गोंडवाना की महान समाजसेविका राजमाता राजमोहिनी देवी

    सरगुजा क्षेत्र इतिहास के पन्नों में मूलवासी देशजों के धनी आबादी वाला / गोंडियन आबादी वाला परिक्षेत्र रहा है। यहां गोंड शासकों ने लम्बे समय तक शासन किया है। इस समुदाय में लागुर बीगुर जैसे दो भाई भी रहे हैं। जिन्होंने विदेशी एवं सामंती हुकूमत के खिलाफ लोहा लिया और दुश्मनों के दांत खट्टे किए थे। सरगुजा शब्द ही अपने आप में लोगों में जिज्ञासा व कौतुहल उत्पन्न करता है, कि आखिर इस जगह का नाम सरगुजा क्यों पड़ा? इस विषय में मूल वाशिंदों को अपना इतिहास जांचना और खंगालना चाहिए। सूरगुजा जनश्रुति के अनुसार सूर -भालू और गुंजा -हाथी ये गोंडी भाषा के शब्द हैं। दूसरी महत्वपूर्ण बात गोंडी मैथोलोजी के अनुसार हाथी को गोंडवाना के गण्डजीवों का और सिंह को राजा का प्रतीक माना गया है। अनादिकाल से गोंडवाना के गोंड राजाओं का राज्यचिन्ह और राजमुद्रा ‘गज सोडूम’ हाथी पर सवार सिंह रहा है।इस हिसाब से सरगुजा रियासत गोंडवाना था । और गोंड राजा महाराजाओं ने लम्बे अंतराल तक यहां पर शासन किए हैं। उसका प्रतीक प्रमाण आज मां महामाया मंदिर के प्रांगण में गज सोडुम की प्रतिमा आज भी स्थापित है। जिसे गोंडवाना काल में गोंड राजा ने बनवाया था। यही कारण है कि इस परिक्षेत्र को गोंडी भाषा के अनुसार सूरगुजा कहा जाता है। दूसरी महत्वपूर्ण बात गोंडी में सूर को ध्वनि , नाद , भी कहा जाता है। गोंडी भाषा में कहा जाता है कि ईम्माट हिद सिरडी ता वरूक्की कोयतुर्क आंदिट । इसका आशय है कि आप लोग इस विश्व के प्रथम गोंड हो। यह शब्द पहांदि से आंदिर शब्द आया जो ये बता रहा कि प्रथम पुरखा । और वायाना मतलब आना । तो मूल शब्द वाम बनता है जिसमें सी प्रत्यय लगाकर वासी हो जाता है। तो आंदी वासी =वो जो पहले आया और मांदर बजाया अर्थात सुंदर धुन , सूर निकला और प्रकृति में सूर गूंज उठा जिससे कोयतुर आनंदित होकर नाचने लगा। पशु पक्षी वनस्पति भी झूम उठे उस स्थान को सूरगुजा कहा जाने लगा। कहां जाता है कि सूरगुजा में एक ऐसा स्थान भी है जहां चट्टानों को ठोकने पर विभिन्न प्रकार के सुर संगीत मधुर धुन सुनाई देता है। जिसे हम ठिनठिनी पखना कहते हैं। यही कारण रहा कि यहां का मांदर और यहां का कर्मा बहुत प्रसिद्ध है। हमारे यहां के लोक गायक संजय सुरीला जी का बहुत प्रचलित गीत है ‘हाय रे सरगुजा नाचे ‘ जो समूचे जगत को झूमने पर मजबूत कर देता है ! यहां कि प्राकृतिक सौंदर्यता किसी स्वर्ग से कम नहीं। इसलिए तो कहा जाता है सरग जाए बर होती तो सरगुजा जा। 

18 वीं शताब्दी के समय यह भू भाग अंग्रेजी शासन के अधीन हो चुका था।, अंग्रेज़ों के द्वारा अपनी प्रशासनिक व्यवस्था को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए सन् 1818 में पूरे सरगुजा क्षेत्र को अलग करते हुए एक नया जिला का दर्जा देकर पूर्व के बिहार झारखंड में सम्मिलित कर दिया गया।और बाहरी सामंतवादी एवं ब्रिटिश हुकूमत के षड़यंत्र के तहत यहां के शांतिप्रिय गोंडवाना विरासत को समाप्त कर अन्य प्रांतों से आए उत्तर प्रदेश और बिहार से सैकड़ों नौकर , कर्मचारी के रूप में उन्हें सरगुजा ,उदयपुर , धरमजयगढ़, जशपुर, भरतपुर,कोरिया, मनेंद्रगढ़, सूरजपुर जैसे स्थानों में लाकर बिठा दिया गया। वर्ष 1820 से 1826 के बीच में स्थापित रहे। गोंड जमींदारों की जमीनें छीनने के उपरान्त उनके सैकड़ों हजारों एकड़ कृषि जमीनों को बाहर से लाए हुए गैर आदिवासी नौकर चाकर , कर्मचारियों को खुले हाथों से ईनाम बक्खशीस के रूप में दिया गया। अंग्रेज सरकार अपने शासन काल में राजस्व आय बढ़ाने के लिए व इस अंचल में कभी क्रांति का बिगुल ना बजे उसके लिए अन्य प्रांतों से सैकड़ों की संख्या में शराब के ठेकेदारों को पूरे क्षेत्र में लाकर मूलवासी इलाकों में बसाकर शराब व्यवसाय करने की खुली छूट दे दी और यहां के भोले-भाले कोयतुरो़ को शराब का आदी बना दिया गया। जो शराब से दूर रहते उन लोगों को ठेकेदारों के आदमी द्वारा अंग्रेजी हुकूमत के सांठगांठ कर झूठे मामले में फंसाकर उन्हें हतोत्साहित करते हुए एक प्रकार से कानून का भय दिखाकर शराब पीने को मजबूर किया जाने लगा। इस तरह से पूरा सरगुजा जो कभी शांतिप्रिय स्थान याने सरग के नाम, मधुर संगीत के नाम से सूर गुंजा जाना जाता था अब शराब के चुंगल में फंसकर अपने घरों की गाय ,बैल, भैंस ,बकरी , कृषि भूमि बेंच कर बंधुआ मजदूर हो गया । शोषण अत्याचार की सीमा न रही। अंग्रेजी राज्य का सामंतवादी ताकतों का साम्राज्य आ चुका था और यहां के मूल मालिकों, आदिवासियों, देशों पर अमानवीय अत्याचार करने लगे। अंग्रेजी राज के समय यहां नौकरी चाकरी करने वाले लोग व उनके नुमाइंदे, जनप्रतिनिधियों ने हमारे भोले भाले सरगुजिहा मूल बाशिंदे , गोंडियन समुदाय के लोगों की पुरखों की जमीनों को छीनकर हमें हमारी ही जमीन पर बेगारी, बंधक मजदूर, बनाकर , जबरन , अपने निवास में गुलामी करने के लिए विवश करते रहे। सरगुजा ने लम्बे समय तक अन्याय, अत्याचार, शोषण बेबसी , के साथ जीवन यापन किया। अत्याचार सहे, शोषण दमन प्रताड़ित होते रहे। पूरी तरह से सूरगुजा को किसी की नज़र लग गयी। साथ ही साथ एक साथ अकाल भी झेलनी पड़ी। इसी बेबसी लाचारी के बीच एक क्रांति की ज्योति लेकर गोंड वंश में एक महान नारी के रूप में टेकाम परिवार में अवतरित हुई रजमनिया देवी जो सरगुजा वासियों के लिए आदर्श , प्रेरणा स्त्रोत बनकर पूरे भारत के अंदर अपना नाम रोशन कर गयी। साथ ही साथ सरगुजा की माटी को फिर से जिसने आलोकित कर दिया वह महतारी का नाम है। गोंड वंश की दाई राजमोहिनी देवी। छत्तीसगढ़ अंचल के प्राचीन सूरगुजा जिला के अंतर्गत वाड्रफनगर में शारदापुर (सरसेढ़ा) में एक गोंड समुदाय के परिवार में दाई शीतला देवी पिता देव साय गोत्र टेकाम परिवार में दो पुत्र जन्म लेने के बाद 1914 में एक पुत्री ने जन्म लिया जिसका नाम रजमन रखा गया। उस समय पहुंच विहीन क्षेत्र होने के कारण शिक्षा का केंद्र नहीं होने की स्थिति में अशिक्षित रहकर ग्रामीण परिवेश में ही बचपन बीता। आप कृषि कार्य में दक्ष रहीं। माता-पिता की लाड़ली रहीं। समयानुसार आपका मड़मी नेंग (विवाह) गोंडी पद्धति से गोविंदपुर निवासी रंजीत सिंह गोत्र सय्याम से हो गया। शादी होने के बाद आपको पांच पुत्रियां, और दो पुत्र हुए।पुत्रों के नाम क्रमशः बलदेव सिंह, मुन्नू देव सिंह, हुए। आपने पूरे सय्याम परिवार का एक कोड़यार/मायजू के रूप में बखूबी दायित्वों का निर्वहन किया। समय बीतता गया। परंतु समय काल एक सा रहता नहीं एक समय भयंकर अकाल की स्थिति निर्मित हुई। लोग कर भूखों मरने लगे। सरगुजा दो दो आपदाओं से गुजर रहा था। एक सामंतवादी ताकतों का शिकार ऊपर से प्रकृति की मार। यह आपदा लगभग 1951 के प्रथम आषाढ़ में पड़ा। जब पूरा सावन अषाढ़ महीना बीत रहा था तब आसमान में काले बादल का नामोनिशान नहीं था जनता बिलख रही थी। भूख की मार , अमानवीय अत्याचार, हर तरफ कोहराम मच गया। चूंकि सरगुजा अंचल उस समय प्राकृतिक क़ृषि पर निर्भर था जंगल से कंदमूल खाकर, जीवन व्यतीत कर रहा था। परंतु अकाल स्थिति में जंगल भी सूख गये। दूर दूर तक कंदमूल भी नहीं मिलता। विषम परिस्थिति थी ।लोग भोजन की तलाश में व्याकुल थे।ऊपर से आदिवासियों के संसाधनों का दोहन करने वाली ताकतों ने यहां के मूलवासियों का खूब रक्त पिया। दोहरी मार सहन करता हमारा समुदाय त्राहिमाम त्राहिमाम कर रहा था। और ये नरभक्षी भयानक अकाल के समय बेगारी के बदले मजदूरी भी नहीं दे रहे थे दिन भर में महुआ का एक चिपड़ी दे देते। हमारी मजबूरी का फायदा उठाकर बाहरी नरभक्षी लोग हमारी बहू बेटियों पर अत्याचार खुलेआम करते थे। मानवता शर्मशार थी। ऐसे कठिन परिस्थिति का सामना सय्याम परिवार भी कर रहा था । ऐसे में दाई रजमन ने ग्रामीण महिलाओं, पुरूषों की अलग-अलग टोली बनाकर विचार विमर्श किया और भोजन की तलाश में रमकोला-बोंगा के जंगलों में निकल पड़े। महिलाओं की टोली का नेतृत्व उन्होंने स्वयं किया।पूरे जंगल में दिन भर कंदमूल की खोज करने के बाद भी कुछ थोड़े कंदमूल मिले उतने से कुछ होने वाला नहीं था। तब रजमन दाई निराश मन से अपने हाथों में लिए और बोंगा नदी के किनारे एक गढ्ढा नुमा स्थान पर बैठ गयी। और कंदमूलों को साफ करने को बढ़ी कि अचानक नदी के दूसरी क्षोर से एक सफेद वस्त्रधारी लम्बे बालों वाला पुरुष दिखाई दिया। दिखने में दिव्यता झलक रही थी। दाई को समझते देर न लगी उन्होंने आदर पूर्वक सम्मान किया । जय जोहार किया जैसा हमारे सरगुजा में प्रचलीत है। तब उसने पूछा कहो बेटी क्या तकलीफ़ है दाई ने झट से सारी व्यथा उस दिव्य पुरूष को बता दी। उस दिव्य पुरूष ने दाई को धैर्य संयम रखने को कहा। और साथ में यह भी कहा कि तुम मानव सेवा में लगाओ। सेवा ही तुम्हारा असली धर्म है । और जय सेवा का मूल मंत्र देकर वो अंतर्ध्यान हो गये। उसी वक्त दाई घर पहुंची और कंदमूल को छोड़कर उस दिव्य पुरूष की कही बातों को ध्यान में रखकर पास ही गौरी पहाड़ में एक चट्टान पर बैठ गयी और मन ही मन पुरखा शक्ति , आराध्य फड़ापेन का स्मरण करने लगी । लगातार बिना खाए पिए दो दिन बीत गये तीसरे दिन दोपहर के समय अचानक काले काले बादलों ने ढंक लिया और कुछ ही देर बाद मुसलाधार बारिश हुई। चारों ओर खेत , ताल तलैया लबालब भर गये। इस भीषण बरसात ने कृषकों को झूमने पर मजबूर कर दिया। प्रकृति शक्ति ने मां की करूड़ पुकार सुन ली।ग्राम वासियों का खुशी का ठिकाना न रहा। बात जोर से फैलने लगी, एक गांव से दूसरे गांव, होते हुए पूरे ब्लाक , सभी तरफ बात फ़ैल गयी कि जिस स्थान पर रजमन दाई की तप साधना की वहीं स्थान में प्रकृति शक्ति ने यह कृपा बरसाई। इस वजह से सभी लोग नारियल धूप , करने आने लगे। लोग कहनै लगे एक मात्र शक्ति की तपस्या से मुसलाधार बारिश हो रही । लोग हजारों की संख्या में दर्शन को आने लगे।रजमन दाई भी उस स्थान में प्रतिदिन आकर सेवा करने लगी। और लोगों को बुरी व्यसन से दूर रहने को कहा। उन्होंने यह भी कहा कि हमारा सरगुजा बहुत ही सीधा सच्चा सरल हृदयी वाला परिक्षेत्र रहा किंतु बाहरी लोगों की वजह से दूषित हो गया । और आप सब ग़लत आचरण व्यवहार कर रहे हो। इसलिए प्रकृति कुपित हो गयी । अब आप लोग नशा , व्यसन का त्याग करो। और सादा जीवन उच्च विचार रखो। इधर सभी उनकी बातों का अनुसरण कर खेती किसानी में जुटे गये। और मुनाफा कमाने के लिए साहूकारों ने अपने अनाज भण्डार खोल दिए किसानों को मुंह मांगा अनाज मिलने लगा। उस वर्ष आराध्य पुरखाशक्ति की असीम कृपा हुई। गोविंद पुर ही नहीं समूचा सरगुजा झुम उठा। रजमन दाई के घर में जशपुर, कोरिया, उदयपुर, भरतपुर, सीधी , सिंगरौली, शहडोल, धर्मजयगढ़, उत्तर प्रदेश, विंध्य क्षेत्र, वर्तमान झारखण्ड सभी जगह से पैदल चलकर लोग आने लगे। और उन्हें सच्चा निवारण कर्ता मानने लगे। अपने अपने क्षेत्रों की समस्याओं को लेकर सभी दाई के पास आने लगे। वर्षों से व्याप्त आर्थिक शोषण , बेगारी प्रथा , बंधुआ मजदूरी चरमज्ञपर थी। अन्याय अत्याचार को दूर करने की मंशा लेकर लोग उनकी शरण में आने लगे। लोगों को विश्वास हो गया कि यदि हम दाई कहे अनुसार चलेंगे तो वो हमारे दुख दूर करेगी। अब रजमन दाई जो शब्द निकालती वह एक प्रकार से लोगों के दिलो दिमाग में बैठ जाता और वे अनुसरण करने लगते। धीरे-धीरे जनता को ऐसा लगने लगा कि अब रजमन दाई साधारण स्त्री नहीं बल्कि उनके अंदर एक दिव्य शक्ति विराजमान हो गयी है।इस कारण जनता उन्हें रजमन दाई न कहकर राजमोहिनी देवी नाम से संबोधित करने लगे।इस तरह सरगुजा वासियों को एक बहुत बड़ी समाज सेविका के रूप में राजमाता मोहिनी के रूप में मिली। देश आजाद होने के बाद अंग्रेज तो भारत छोड़ गये पर उसके बाद उत्तर प्रदेश और बिहार झारखंड से जो अंग्रेजी हुकूमत में गुलामी करने आए थे वे लोग धीरे धीरे इस अंचल पर अपना अधिकार जमा लिए। और सैकड़ों की संख्या में अपने रिश्तेदारों को लाकर सरगुजा संभाग में बसा दिए। और यहां के लोगों को बंधुआ मजदूर बनाकर शोषण करने लगे।जब राज मोहिनी देवी को पता चला तब उन्होंने शराब बंदी, बंधुआ मजदूर प्रथा , बेगारी प्रथा के विरुद्ध आंदोलन छेड़ दिया। गलत काम के विरुद्ध शोषितों का आवाज बनकर उभरीं। हजारों की संख्या में लोग इनके आंदोलन का हिस्सा बनने लगे। लोग पारंपरिक लोक नृत्य दल लेकर वाद्ययंत्र लेकर सामूहिक रूप में गाने लगे। 

राजा के राज छुपे, प्रजा केज्ञबेगारी, बड़े बड़े बाबू भईया धरथें कुदारी।

इस तरह गीत गाते एक गांव से दूसरे गांव और दूसरे गांव से तीसरे गांव राजमाता राजमोहिनी देवी के नेतृत्व में संपूर्ण सरगुजा ही नहीं संपूर्ण छत्तीसगढ़ के साथ-साथ अन्य राज्यों में भी आंदोलन धरना, प्रदर्शन का शंखनाद हो गया। परंतु इनके आंदोलन को लेकर प्रशासन गंभीर नहीं रही ।तब राजमाता मोहिनी ने स्वयं पैदल पदयात्रा करते दिल्ली पहुंचकर प्रधानमंत्री को अपने सरगुजा की पीड़ा को बताया। राजमाता राजमोहिनी देवी का पदयात्रा आंदोलन सरगुजा, जशपुर, भरतपुर, सीधी शहडोल, उत्तर प्रदेश विंध्य क्षेत्र, के जिन जिन गांवों से गुजरा उस क्षेत्र के बुजुर्ग पीढ़ी आज भी उसपर को याद करते हुए अपने वर्तमान पीढ़ी को किस्से कहानियों के रूप में बताते हैं कि कैसे एक नारी शक्ति ने शोषणकारी महलों में रहने वालों के नींव को झकझोर कर रख दिया। धन्य थी वह दाई। 

1960 के पश्चात संत विनोबा भावे जी शराबबंदी, भू दान ग्राम उद्योग स्थापना, गांव गांव चरखा प्रशिक्षण, सूत कातने का आंदोलन देश पर चला तब माता ने भी स्वयं को समर्पित कर दिया। सच कहा जाए तो परोपकारिता की मिशाल रहीं राजमाता राजमोहिनी देवी। निश्छल जन सेवा , कूट कूट कर भरीं थी। आज उन्हें पूरे देश में एक प्रख्यात समाजसेविका के रूप में सम्मान प्राप्त हुआ। जिन्होंने गरीबी से उठकर जनता के बीच कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी 40वर्षो तक निरंतर शोषितों पीड़ितों की आवाज बनकर सरगुजा संभाग का नाम रोशन किया। और समूचा जीवन को सेवा धर्म निभाने में , मानवता की सेवा करने में अपना पूरा जीवन अर्पित कर दिया ऐसे महान गोंड वंश की आन बान और शान सरगुजा की सम्मान , समाजसेविका, संत साधिका , राजमाता मोहिनी के चरणो में कोटि-कोटि प्रणाम। आपकी याद में राजमाता मोहिनी भवन है। आपको महामहिम राष्ट्रपति महोदय श्री वेंकट रमन जी के कर कमलों द्वारा राज मोहिनी देवी को पद्मश्री उपाधि से विभूषित किया गया। साथ ही 1985में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय समाज सेवा पुरस्कार से स नवाजा गया एवं ताम्र पत्र से आरती उतारी गयी। साथ ही 1986 में मध्यप्रदेश सरकार के राज्यपाल महोदय जी के द्वारा इंदिरा गांधी समाज सेवा पुरुस्कार व स्मृति चिन्ह व एक लाख रूपए की नगद राशि भेंटकर उन्हें सम्मानित किया गया। हमारा सरगुजा अंचल के जन जन की राजमाता राजमोहिनी देवी लंबे उम्र की अवधि तक जीवित रहने के बाद दिनांक 06/01/1994 को हमेशा हमेशा के लिए प्रकृति में विलीन हो गयीं। सच कहूं तो जय सेवा का असली अर्थ उन्ही को पता था। पुनः दाई को कोटि-कोटि सेवा जोहार। 

लेखक एवं विचारक: बुद्धम सय्याम जी

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