Saturday, November 15, 2025
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पेनवासी आचार्य मोतीरावण कंगाली के पुण्यतिथि पर विशेष लेख: पेनवासी आचार्य डॉ. मोतीरावण कंगाली: गोंडी सभ्यता के थे अमर दीपस्तंभ

     भारत की सभ्यताओं की विराट यात्रा में यदि कोई नाम ऐसा है जिसने कोयतुर अस्मिता, भाषा, दर्शन और संस्कृति के पुनर्जागरण को अपना जीवन समर्पित किया तो वह नाम है लिंगोवास आचार्य डॉ. मोतीरावण कंगाली दादा। यह वह व्यक्तित्व हैं जिन्होंने गोंडवाना की माटी में दबे गौरवशाली इतिहास को शब्दों और शोध के माध्यम से पुनर्जीवित किया। उन्होंने न केवल गोंडी भाषा को वैज्ञानिक प्रमाणों के साथ परिभाषित किया बल्कि यह भी सिद्ध किया कि गोंड समाज की जड़ें भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता सिंधु घाटी से जुड़ी हुई हैं। उनका जीवन इस बात का प्रतीक है कि एक व्यक्ति अपनी साधना से पूरी सभ्यता को पुनः आत्मचेतना दिला सकता है।2 फरवरी 1949 को महाराष्ट्र के नागपुर जिले के रामटेक तहसील अंतर्गत ग्राम दुलारा की पवित्र धरती पर एक बालक ने जन्म लिया, जिसका नाम उसके माता-पिता ने रखा था “मोतीराम” वही बालक आगे चलकर पूरी गोंडी दुनिया में मोतीरावण कंगाली के नाम से जाना गया। उनके पिता दाऊ छठीराम कंगाली और माता दाई रायथर कंगाली साधारण ग्रामीण परिवार से थे, लेकिन उस घर में विद्या, संस्कृति और आत्मगौरव की विरासत प्रवाहित थी। जन्म के समय से ही उनमें अध्ययन, जिज्ञासा और भाषिक संवेदना की अद्भुत क्षमता दिखाई दे रही थी। उन्होंने बचपन में करवाही गांव में चौथी तक शिक्षा प्राप्त की और आगे नागपुर के एचयूडीएस हाई स्कूल से दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसी दौरान उन्होंने यह महसूस किया कि गोंडी भाषा और संस्कृति के प्रति समाज में गहरी उपेक्षा है। यह भावना उनके जीवन का केंद्र बन गई।

‘मोतीराम’ से ‘मोतीरावण’ तक: अस्मिता का किया रूपांतरण

युवा अवस्था में उन्होंने अपने नाम से ‘राम’ शब्द हटाकर ‘रावण’ जोड़ लिया। यह निर्णय मात्र नाम परिवर्तन नहीं था, बल्कि यह आदिवासी अस्मिता का उद्घोष था। उन्होंने कहा था कि रावण हमारे पूर्वज हैं, हमारे इतिहास का प्रतीक हैं, जिन्होंने ज्ञान, विज्ञान और संस्कृति का अलौकिक द्वार खोला था। इस परिवर्तन के माध्यम से उन्होंने गोंड समाज में आत्मगौरव और आत्मचिंतन की लौ जलाने का कार्य किया। यही वह समय था जब उन्होंने गोंडी पुनेम दर्शन को एक सशक्त दार्शनिक और सांस्कृतिक रूप में प्रस्तुत करने का निश्चय किया।

शिक्षा और शोध का दीपक थे कंगाली जी

लिंगोवास डॉ. मोतीरावण कंगाली ने उच्च शिक्षा में नागपुर विश्वविद्यालय से एम.ए., एल.एल.बी. और बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। उनका शोध का विषय था—मध्य भारत की गोंड जनजातियों के संबंध में जनजातीय सांस्कृतिक मूल्यों का दार्शनिक आधार। यह शोध भारतीय समाज विज्ञान में एक ऐतिहासिक योगदान था क्योंकि उन्होंने गोंड समाज के दर्शन को महज ‘जनजातीय अध्ययन’ नहीं बल्कि एक स्वतंत्र दर्शनशास्त्र के रूप में प्रस्तुत किया। शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने भारतीय रिजर्व बैंक नागपुर में अधिकारी के रूप में कार्य किया, लेकिन उनकी आत्मा सदैव गोंडी भाषा और संस्कृति के लिए धड़कती रही।

कंगाली ने गोंडी भाषा का किया पुनर्जागरण

कंगाली जी ने गोंडी भाषा के विकास और मानकीकरण का एक सुनियोजित आंदोलन खड़ा किया। उन्होंने कहा “भाषा केवल शब्दों का समूह नहीं, वह संस्कृति की आत्मा होती है।” गोंडी भाषा के लिए उन्होंने व्याकरण, शब्दकोश और शोधग्रंथ तैयार किए। उनकी प्रमुख कृतियाँ गोंडी भाषा व्याकरण, गोंडी शब्दकोश (दो खंडों में), गोंडी वाणी का पूर्व इतिहास, गोंडी भाषा का उद्भव और विकास, गोंडी करीयाट, गोंडी नृत्य का पूर्व इतिहास आज गोंडवाना भाषा अध्ययन के स्तंभ हैं। उन्होंने गोंडी व्युत्पत्तिमूलक शब्दकोश को पाँच खंडों में तैयार किया, जो अभी भी प्रकाशन की प्रतीक्षा में है। उनके कार्य ने यह सिद्ध कर दिया कि गोंडी भाषा एक पूर्ण, प्राचीन और वैज्ञानिक भाषा है, जो भारत की सांस्कृतिक जड़ों का अविभाज्य हिस्सा है।

सिंधु लिपि से गोंडवाना तक: अद्भुत शोध यात्रा

डॉ. कंगाली ने दुनिया को यह चकित कर दिया जब उन्होंने सिंधु घाटी सभ्यता की लिपि को गोंडी भाषा में उदवाचित कर दिखाया। उन्होंने कहा कि “हड़प्पा और मोहनजोदड़ो” की लिपियाँ गोंडी भाषा में पढ़ी जा सकती हैं। यह दावा केवल सांस्कृतिक नहीं बल्कि भाषावैज्ञानिक दृष्टि से भी क्रांतिकारी था। उन्होंने हम्पी में पाए गए 22 चित्राक्षरों का विश्लेषण किया और उनमें से पाँच को गोंडी अक्षरों के समान पाया। इस खोज ने विश्व के भाषाशास्त्रियों का ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने यह सिद्ध किया कि गोंड लोग केवल भारत के इतिहास का एक अध्याय नहीं हैं, बल्कि वे स्वयं इतिहास की जड़ हैं।

गोंडवाना का सांस्कृतिक इतिहास और दार्शनिक चिंतन

कंगाली जी की कृति ‘गोंडवाना का सांस्कृतिक इतिहास’ इस बात का जीवंत प्रमाण है कि उन्होंने आदिवासी जीवन को केवल लोककथा या परंपरा नहीं माना, बल्कि उसे एक वैचारिक, दार्शनिक और वैज्ञानिक प्रणाली के रूप में प्रस्तुत किया। उनके अनुसार गोंडी जीवन का हर पहलू—खान-पान, वेशभूषा, बोली, नृत्य, गीत, पर्व—प्रकृति के साथ समरसता की अभिव्यक्ति है। उन्होंने ‘प्रकृति चक्र’ और ‘जीवन चक्र’ जैसे सिद्धांतों के माध्यम से गोंडी जीवन-दर्शन को आधुनिक पर्यावरणीय चिंतन से जोड़ा। यह विचार आज के युग में स्थायी विकास और पर्यावरण संरक्षण के लिए भी मार्गदर्शक है।

कछारगढ़ जात्रा और सांस्कृतिक पुनर्जागरण

कंगाली जी ने अपने मित्र के.बी. मरसकोले और शीतल मरकाम के साथ मिलकर कछारगढ़ की गुफाओं में होने वाली पारंपरिक माघ पूर्णिमा जात्रा का पुनर्जीवन किया। उन्होंने गोंड समाज को बताया कि यह स्थान पारी कुपार लिंगो और जंगो रायताड़ की उस स्मृति से जुड़ा है, जहाँ से गोंड पूर्वजों ने अपने अस्तित्व की रक्षा की थी। पहले जहाँ इस जात्रा में कुछ सौ लोग शामिल होते थे, वहीं उनके प्रयासों से यह संख्या लाखों में पहुँच गई। उन्होंने गोंडी पुनेम के धार्मिक स्वरूप को पुनः संगठित किया और स्वयं गोंडी पुनेम दर्शन के प्रमुख आचार्य के रूप में स्थापित हुए। आज यह जात्रा गोंडवाना अस्मिता का सबसे बड़ा पर्व बन चुकी है।

कोया पुनेम और भूमका महासंघ की परिकल्पना

गोंडी धर्म के मूल स्वरूप को पुनर्स्थापित करने के लिए डॉ. कंगाली ने कोया पुनेम दर्शन का ढाँचा तैयार किया। यह दर्शन पारी कुपार लिंगो की शिक्षाओं पर आधारित था, जो जीवन, प्रकृति और आत्मा के त्रिकोणीय संबंध को स्पष्ट करता है। उन्होंने भूमका महासंघ की स्थापना की—एक ऐसा संगठन जो कोया पुनेम के पुरोहितों को प्रशिक्षित करता है और गोंडी पूजा-पद्धति को शुद्ध रूप में संरक्षित रखता है। आज यह महासंघ महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और उत्तर प्रदेश में सक्रिय है और गोंडी धर्म को सांस्कृतिक चेतना का प्रतीक बना रहा है।

देवी स्थलों का पुनरुद्धार और सांस्कृतिक विमर्श

डॉ. कंगाली ने उन प्राचीन गोंडी पेन स्थलों को हिंदूकरण से मुक्त कराने का आंदोलन चलाया जिन्हें धीरे-धीरे बाहरी प्रभावों ने अपनी कथाओं में समाहित कर लिया था। उन्होंने डोंगरगढ़ की बम्लेश्वरी दाई, बस्तर की दंतेश्वरी दाई, कोरोडीगढ़ की तिलका दाई और चांदागढ़ की कंकाली दाई पर शोध कर यह स्पष्ट किया कि ये स्थल गोंडी मातृदेवी परंपरा से जुड़े हुए हैं। इन पुस्तकों के माध्यम से उन्होंने यह बताया कि गोंडवाना का धार्मिक जीवन प्रकृति और मातृशक्ति की उपासना पर आधारित है, न कि किसी बाहरी आस्था पर।

भाषा, संस्कृति और अस्मिता का विज्ञान

कंगाली जी हमेशा कहा करते थे “अगर किसी की संस्कृति को नष्ट करना है तो सबसे पहले उसकी भाषा को नष्ट कर दो।” उन्होंने यह चेतावनी केवल गोंडीयन समाज के लिए नहीं, बल्कि पूरे भारत के अन्य समाज के लिए भी दिया था । उनका मानना था कि हर भाषा एक जीवित संस्कृति की धड़कन होती है। यदि गोंडी भाषा समाप्त हो जाएगी तो गोंडवाना केवल एक भौगोलिक स्मृति बनकर रह जाएगा। उन्होंने सरकारों से बार-बार आग्रह किया कि गोंडी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान दिया जाए, ताकि इसे राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिल सके। दुर्भाग्यवश यह माँग आज भी अधूरी है।

कंगाली जी के जीवनसंगिनी चंद्रलेखा कंगाली का अमूल्य योगदान

डॉ. मोतीरावण कंगाली के कार्यों में उनकी जीवनसंगिनी चंद्रलेखा कंगाली का अमूल्य योगदान रहा। स्वयं समाजशास्त्र की विदुषी, चंद्रलेखा जी ने अपने पति के साथ गोंडी दर्शन के प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने ‘गोंडी पुनेम दर्शन’ और ‘गोंडी सांस्कृतिक इतिहास’ जैसी पुस्तकों के प्रकाशन में सहयोग किया। उनकी पुत्रियाँ श्रुंखला कंगाली (आईआरएस अधिकारी), विनंती कंगाली (नेत्र चिकित्सक) और वेरुंजलि कंगाली (साहित्य शोधकर्ता) के रूप में आज भी इस विरासत को आगे बढ़ा रही हैं।

गोंडी दर्शन: गोंड समुदाय की आत्मा, प्रकृति और समाज का समन्वय

कंगाली जी के अनुसार गोंडी दर्शन तीन प्रमुख तत्वों पर आधारित है—जीव, प्रकृति और समाज। उनका कहना था कि गोंड समाज की पेन स्थल की गोगो प्रकृति से प्रारंभ होती है और उसी में समाप्त होती है। “हमारे देवी – देवता पर्वत, वृक्ष, नदी, वायु और अग्नि” हैं, और यही हमारी आस्था का केंद्र भी है। उन्होंने यह सिद्ध किया कि गोंडी पुनेम का दर्शन किसी धर्म का विकल्प नहीं बल्कि जीवन की एक वैज्ञानिक व्याख्या है। यही दर्शन आज ‘सस्टेनेबल लाइफ’ के आधुनिक विचार से भी मेल खाता है।

एक अमर विरासत: जिसमें उनके विचार आज भी जीवित है

30 अक्टूबर 2015 को नागपुर में जब डॉ. मोतीरावण कंगाली ने इस पृथ्वी को अलविदा कहा तो यह केवल एक व्यक्ति की मृत्यु नहीं थी, बल्कि एक युग का अवसान था। परंतु उनकी विचारधारा आज भी जीवित है। हर कछारगढ़ जात्रा में, हर गोंडी गीत में, हर पुनेम अनुष्ठान में उनकी आवाज़ गूँजती है। उन्होंने दिखाया कि गोंडवाना कोई इतिहास का कोना नहीं, बल्कि भारत की आत्मा का केंद्रीय अध्याय है। उनकी पुस्तकों में निहित ज्ञान आज भी नई पीढ़ी को दिशा देता है। उनके शब्दों में “हमारी संस्कृति किसी परंपरा की स्मृति नहीं, वह जीवित विज्ञान है, जो हर पीढ़ी को जोड़ता है।”

गोंडवाना के महर्षि की अनश्वर गाथा

आचार्य डॉ. मोतीरावण कंगाली जी ने जो कार्य किया वह केवल गोंड समाज के लिए नहीं, बल्कि पूरे भारत के सांस्कृतिक इतिहास के लिए अमूल्य है। उन्होंने यह सिद्ध किया कि भारत की सभ्यता की जड़ें बहुवचनात्मक हैं, यहाँ हर भाषा, हर संस्कृति, हर परंपरा एक ही वृक्ष की शाखा है। उन्होंने गोंडी भाषा के माध्यम से उस वृक्ष की जड़ों में नया जीवन संचार किया। उनके विचारों की लौ हमें यह संदेश देती है कि जब तक कोई समाज अपनी मातृभाषा, अपने दर्शन और अपने पूर्वजों से जुड़ा रहेगा, तब तक उसका अस्तित्व अमर रहेगा। डॉ. कंगाली की स्मृति, उनकी कलम और उनका ज्ञान आज भी गोंडवाना के आकाश में एक ज्योति बनकर जल रहे है, जो आने वाली पीढ़ियों को उनके मूल पहचान को याद कराता रहेगा।

|| जय गोंडवाना, जय मूलनिवासी ||

लेखक: महेन्द्र सिंह मरपच्ची/मो. न. 7470802023

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