लेखक/विचारक : महेन्द्र सिंह मरपच्ची
एक नाम, जो गोंडवाना अस्मिता की पहचान बन गया जो आज भी लोगों की रग-रग में उनका नाम बसा है। छत्तीसगढ़ और मध्य भारत के जनजातीय जन-मानस में जब ‘स्वाभिमान’ और ‘स्वराज’ की बात उठती है, तब एक नाम सबसे पहले स्मरण में आता है, वो है पेनवासी दादा हीरा सिंह मरकाम वे केवल एक राजनीतिज्ञ नहीं, बल्कि एक विचारधारा, एक आंदोलन और एक संकल्प का नाम हैं। उन्होंने अपने जीवन को गोंडवाना के पुनरुत्थान, आदिवासी स्वाभिमान और सामाजिक न्याय की अलख जगाने के लिए समर्पित कर दिया। 14 जनवरी 1942 को कोरबा (तब का बिलासपुर) जिले के छोटे से गाँव तिवरता में जन्मे इस साधारण किसान पुत्र ने वह कार्य किया, जो बड़े-बड़े नेताओं से भी असंभव रहा। उन्होंने गांव-गांव पैदल चलकर गोंडवाना गणतंत्र पार्टी जैसी वैचारिक शक्ति की स्थापना की दादा मरकाम का जीवन एक ही मिशन पर आधारित था वह था मूलनिवासी समाज को शिक्षा देना, उसे अपनी पहचान पर गर्व करना सिखाना और संविधान के अनुरूप अपने अधिकारों के लिए जागरूक करना। उनकी यात्रा एक शिक्षक से समाज सुधारक, फिर राजनीतिक नेता और अंततः में जन-नायक बनने तक की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
संघर्षों से संकल्प तक – शिक्षक से जननेता बनने तक की यात्रा
पेनवासी दादा हीरा सिंह मरकाम का जीवन आरंभ हुआ एक किसान परिवार से बचपन में जब गांव में स्कूल नहीं था, तब वे उस व्यक्ति से पढ़े जो गांव के जमींदार का मंत्री हुआ करता था। बदले में बच्चे उन्हें रोज़ चावल दिया करते थे। यही उस समय की शिक्षा व्यवस्था थी। यह वही बालक था, जिसने कठिन परिस्थितियों में भी शिक्षा की मशाल जलाए रखी। गांव से प्राथमिक शिक्षा, सूरी गांव से माध्यमिक शिक्षा और फिर कटघोरा व भोपाल से हायर सेकेंडरी और स्नातक, एलएलबी किया और गोल्ड मेडलिस्ट थे। यह सब उन्होंने शिक्षक की नौकरी करते हुए पूरा किया। सन 1960 में उन्हें ग्राम रलिया में सरकारी शिक्षक की नियुक्ति मिली। उन्होंने 18 वर्षों तक निष्ठा से अध्यापन किया, लेकिन जब उन्होंने देखा कि शिक्षक वर्ग के साथ अन्याय हो रहा है, तब उन्होंने आवाज उठाई और शिक्षा अधिकारी के खिलाफ उन्होंने मोर्चा खोला और यहीं से उनमें एक जननेता का जन्म हुआ। 2 अप्रैल 1980 का वह तारीख उनके जीवन का मोड़ साबित हुई। उन्होंने सरकारी नौकरी से इस्तीफा देकर राजनीति में कदम रखा। निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में जब उन्होंने पाली-तानाखार से चुनाव लड़ा, तो उन्हें दूसरा स्थान मिला और समाज ने उन्हें अपनी आवाज के रूप में स्वीकार कर लिया। 1985 में वे भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़े और पहली बार मध्यप्रदेश विधानसभा पहुंचे। लेकिन जब पार्टी ने स्थानीय नेतृत्व की उपेक्षा की तब उन्होंने विद्रोह किया और यही विद्रोह आगे चलकर गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के जन्म का कारण बना।
गोंडवाना गणतंत्र पार्टी की स्थापना एवं वैचारिक क्रांति का उदय
जब देश का आदिवासी क्षेत्र तथाकथित मुख्यधारा की राजनीति में अपनी पहचान खोज रहा था, जब गोंडी संस्कृति, भाषा और धर्म को हाशिये पर रखा जा रहा था, तब दादा मरकाम ने एक ऐतिहासिक कदम उठाया और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी की स्थापना की। इस पार्टी की नींव दिसंबर 1990 में रखी गई और आधिकारिक घोषणा 13 जनवरी 1991 को हुई। यह केवल एक राजनीतिक संगठन नहीं था, बल्कि एक वैचारिक आंदोलन था, जिसका लक्ष्य था, “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” इस एक वाक्य में पेनवासी दादा हीरा सिंह मरकाम का पूरा जीवन दर्शन समाया था। उन्होंने कहा था कि लोकतंत्र में समान अवसर तभी संभव है, जब हर वर्ग की जनसंख्या के अनुपात में उसकी भागीदारी सुनिश्चित की जाए। उनकी पार्टी जाति या धर्म पर नहीं बल्कि अवसर, शिक्षा और आत्मसम्मान के सिद्धांतों पर आधारित थी।
गोंडवाना समग्र विकास क्रांति आंदोलन और परिवर्तन की मशाल
पेनवासी दादा हीरा सिंह मरकाम ने समझा कि राजनीतिक परिवर्तन तब तक संभव नहीं है जब तक सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्तर पर जागरूकता न हो। इसी सोच से उन्होंने शुरू किया था ”गोंडवाना समग्र विकास क्रांति आंदोलन” इस आंदोलन में उन्होंने समाज के हर क्षेत्र के लिए अलग-अलग ईकाइयाँ बनाई जिसमें शैक्षणिक, सामाजिक, स्वास्थ्य, सांस्कृतिक, धार्मिक, व्यापारिक, कृषि और साहित्यिक के तहत हर इकाई का कार्य था, उन्होने गांव-गांव, व्यक्ति-व्यक्ति तक जाकर जागरूकता की लौ को पहुंचाया। उन्होंने भारतीय संविधान की प्रस्तावना को अपने व्यवहार में उतारा जिसमें “सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास और उपासना की स्वतंत्रता और अवसर की समानता” को वे कहते थे कि ”संविधान को किताबों में नहीं, जीवन में जिया जाना चाहिए।”
गोटूल आधारित शिक्षा कृ परंपरा और आधुनिकता का संगम
पेनवासी दादा मरकाम का मानना था कि यदि समाज को आत्मनिर्भर बनाना है तो शिक्षा को उसके जीवन से जोड़ना होगा। इसलिए उन्होंने गोटूल आधारित शैक्षणिक संस्थानों की परिकल्पना की। यह शिक्षा प्रणाली गोंड समाज की पारंपरिक “गोटूल संस्कृति” पर आधारित थी, जहां अनुशासन, श्रम, सेवा, और सामुदायिक जीवन का प्रशिक्षण दिया जाता था। उनका कहना था कि शिक्षा वह है जो व्यक्ति को आत्मसम्मान दे, केवल डिग्री नहीं। गोटूल शिक्षा प्रणाली में बच्चों को खेती, पर्यावरण संरक्षण, लोककला, सामाजिक समरसता और संविधान की भावना सिखाई जाती थी। यही उनके समाज सुधार की नींव थी। एक ऐसा शिक्षित समाज जो न केवल पढ़ा-लिखा हो, बल्कि सजग भी हो।
भ्रष्टाचारमुक्त समाज और समान हिस्सेदारी का दर्शन
पेनवासी दादा हीरा सिंह मरकाम ने हमेशा संगठन और राजनीति को “जनसेवा का माध्यम” माना न कि व्यक्तिगत लाभ। वे कहते थे कि पद और प्रतिष्ठा से बड़ा है समाज का विश्वास। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के संविधान में उन्होंने स्पष्ट किया जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी। यह नारा मात्र शब्द नहीं, बल्कि एक सामाजिक क्रांति का सूत्र था। उन्होंने आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों, किसानों और श्रमिकों को एक साझा मंच पर लाकर बताया कि समानता केवल संविधान में नहीं, समाज में भी दिखनी चाहिए। उनका सपना था भ्रष्टाचारमुक्त, रोजगारयुक्त और आत्मनिर्भर भारत।
गांव- गांव तक पैदल चलकर जनजागरण का किया अभियान
पेनवासी दादा हीरा सिंह मरकाम का जीवन पूरी तरह जनसेवा के लिए समर्पित था। उन्होंने शहरों की आरामदायक राजनीति को नहीं, बल्कि गांवों की धूल भरी गलियों को चुना। वे पैदल चलते थे कभी गोंडवाना के पहाड़ी रास्तों पर, कभी जंगलों के बीच, तो कभी आदिवासी बस्तियों में। उनका उद्देश्य था लोगों को अपने अधिकारों, शिक्षा, स्वास्थ्य, जल-जंगल-जमीन और पर्यावरण के महत्व के प्रति जागरूक करना था। जो लोग उन्हें जानते थे, वे कहते हैं कि दादा मरकाम ने कभी थाली या पत्तल में अनाज का एक दाना नहीं छोड़ा। वे अन्नदाता की मेहनत और प्रकृति की देन का हमेशा सम्मान करते थे। उनकी सादगी, अनुशासन और स्वावलंबन का प्रभाव इतना गहरा था कि उन्होंने असंख्य युवाओं को जीवन का सही उद्देश्य सिखाया।
“भट्टी तोड़ो, गोंडवाना बैंक खोलो”— सामाजिक विज्ञान का क्रांतिकारी प्रयोग
दादा मरकाम का सिद्धांत था “विकास तभी संभव है जब समाज अपनी जड़ों को पहचाने।” उनका “वन टू टेन फार्मूला” समाजिक-आर्थिक योजना का आधार था, हर दस घरों में एक संगठन, एक लक्ष्य और सामूहिक जिम्मेदारी। यह आत्मनिर्भरता का भारतीय मॉडल था । “भट्टी तोड़ो, गोंडवाना बैंक खोलो” केवल नशामुक्ति नहीं, बल्कि निर्भरता से मुक्ति का संदेश था। दादा मानते थे जब समाज अपनी पूंजी और श्रम खुद चलाएगा, तब “गोंडवाना बैंक” आत्मसम्मान का प्रतीक बनेगा। यह नारा आर्थिक आज़ादी और सामाजिक नवजागरण की नींव बना।
“सबको शिक्षा, सबको काम” उनका प्रमुख मंत्र था। शिक्षा को उन्होंने जागरूकता और आत्मनिर्णय की शक्ति माना, और काम को श्रम का सम्मान बताया। यह विचार आज के कौशल और स्वरोजगार की दिशा तय करता है। “गोंड, गोंडी, गोंडवाना हम लेकर रहेंगे” यह केवल भावनात्मक नारा नहीं, बल्कि सांस्कृतिक अस्मिता का घोष था। मातृभाषा और परंपरा को उन्होंने विकास का आधार माना। “स्वावलंबन, सम्मान और स्वाभिमान” दादा का त्रिसूत्रीय दर्शन था। उनका मानना था, जो समाज अपनी जरूरतें खुद पूरी करता है, वही सचमुच स्वतंत्र है। यही विचार आत्मनिर्भर भारत और स्थानीय अर्थव्यवस्था का मूल है।
सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना का संवाहक
पेनवासी दादा हीरा सिंह मरकाम ने गोंडवाना आंदोलन के माध्यम से केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण भी किया। उन्होंने गोंडवाना की लोककला, भाषा, धर्म और परंपराओं को पुनर्जीवित किया। उनका कहना था कि किसी भी समाज की ताकत उसकी संस्कृति और रीति-रिवाज होती है। उन्होंने विश्व आदिवासी दिवस जैसे आयोजनों को गांव-गांव में मनाना शुरू किया, जिससे आज वह एक वैश्विक पहचान बन गया है। उनके भाषणों में पाँच घंटे तक बोलने की ऊर्जा रहती थी। वे दोनों पैरों पर सीधा खड़े होकर बोलते थे, कभी थकते नहीं थे, और अंत में मुट्ठी बंद कर कहते थे कि “अंगूठा अंदर रखो, एकता को मजबूत बनाओ” यह मुट्ठी आज भी गोंडवाना की एकता और आत्मसम्मान का प्रतीक है।
गोंडवाना पुनरुत्थान दिवस – दादा की अमर विरासत और स्वाभिमान का दिन
गोंडवाना समुदाय के लिए 28 अक्टूबर 2020 वह दिन था जब गोंडवाना ने अपना मार्गदर्शक खो दिया, परंतु उनके विचार अमर हो गए। तभी से यह दिन हर वर्ष गोंडवाना पुनरुत्थान दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन पूरे गोंडवाना भूभाग में संकल्प लिया जाता है कि दादा मरकाम के अधूरे सपनों को पूरा किया जाएगा। उनकी शिक्षा, समानता, पर्यावरण संरक्षण और आत्मनिर्भरता की विचारधारा को आगे बढ़ाया जाएगा। पेनवासी दादा हीरा सिंह मरकाम केवल एक व्यक्ति नहीं थे, वे एक आंदोलन थे, एक विचार थे, और एक ऐसी मशाल थे जो पीढ़ियों तक जलती रहेगी। उन्होंने दिखाया कि परिवर्तन संसद से नहीं, समाज से शुरू होता है। उनकी राजनीति में पद नहीं, परिश्रम था, सत्ता नहीं, सेवा थी। जनता के दिलों में उनका नाम आज भी ‘दादा’ के रूप में जीवित है। आज भी दादा के उस संकल्प को याद किया जाता है “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।” यही लोकतंत्र का सच्चा अर्थ है। यही गोंडवाना का दर्शन है। यही दादा हीरा सिंह मरकाम की अमर शिक्षाएँ हैं। दादा हीरा सिंह मरकाम एक ऐसा नाम जो मिट्टी से उठा, मिट्टी के लिए जिया, और अब उसी मिट्टी की आत्मा बन चुका है। उनकी पदचापों की गूंज आज भी गोंडवाना की धरती पर सुनाई देती है और आगे भी देती रहेगी।
“जय गोंडवाना! जय मूलनिवासी/जय भारत!”


