Saturday, November 8, 2025
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सुप्रीम कोर्ट ने हिमाचल हाईकोर्ट के आदेश को किया रद्द: अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होगा हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम

नई दिल्ली। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय देते हुए स्पष्ट किया है कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (Hindu Succession Act, 1956) अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribes) के सदस्यों पर लागू नहीं होता। न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा की द्विसदस्यीय पीठ ने हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के उस आदेश को निरस्त कर दिया है, जिसमें आदिवासी बहुल क्षेत्रों में बेटियों को संपत्ति में अधिकार देने के लिए हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम को लागू करने का निर्देश दिया गया था।

हाईकोर्ट की आदेश को असंवैधानिक बताया सुप्रीम कोर्ट ने

हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने 2015 में अपने एक फैसले में कहा था कि राज्य के आदिवासी क्षेत्रों में महिलाओं को भी समान संपत्ति अधिकार मिलना चाहिए और इसके लिए हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के प्रावधान लागू किए जाने चाहिए ताकि “सामाजिक न्याय और लैंगिक समानता” सुनिश्चित की जा सके। परंतु इस आदेश को चुनौती देते हुए अपीलकर्ता पक्ष ने सुप्रीम कोर्ट में यह दलील दी कि संविधान और कानून दोनों ही स्पष्ट रूप से आदिवासी समाज के पारंपरिक प्रथागत कानूनों को मान्यता देते हैं, और इस पर बाहरी कानून थोपना संविधान के अनुच्छेद 13, 14, 25 और 342 का उल्लंघन होगा। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा कि हाईकोर्ट का निर्देश हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 2(2) के विरुद्ध है। इस धारा के अनुसार यह अधिनियम संविधान के अनुच्छेद 366(25) के अंतर्गत परिभाषित अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों पर तब तक लागू नहीं होगा जब तक कि केंद्र सरकार आधिकारिक राजपत्र में अधिसूचना जारी कर अन्यथा न कहे। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि जब तक केंद्र सरकार कोई अधिसूचना जारी नहीं करती, तब तक हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम आदिवासी समुदायों पर लागू नहीं हो सकता।

पूर्व के फैसलों को भी सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया

यह पहला अवसर नहीं है जब सर्वोच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी की हो। “मदरकामा बनाम श्रीधर पाटिल (1987)” के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि अनुसूचित जनजातियों के उत्तराधिकार, विवाह और संपत्ति से जुड़े मामले प्रथागत कानूनों के अधीन होंगे। इसी तरह “लिंगा राज बनाम राज्य उड़ीसा (2008)” और “कैलाश मिना बनाम राजस्थान राज्य (2011)” जैसे मामलों में भी सर्वोच्च न्यायालय ने दोहराया था कि जनजातीय समुदायों की पारंपरिक सामाजिक संरचनाएं और उत्तराधिकार प्रणाली उनकी संस्कृति का हिस्सा हैं और इस पर बाहरी कानून नहीं थोपा जा सकता।

संविधान भी देता है जनजातीय समुदायों को विशेष सुरक्षा

भारत के संविधान का अनुच्छेद 366(25) अनुसूचित जनजाति की परिभाषा तय करता है, जबकि अनुच्छेद 371 और पाँचवीं अनुसूची में यह सुनिश्चित किया गया है कि आदिवासी बहुल क्षेत्रों में उनके पारंपरिक रीति रिवाज, सामाजिक संस्था और प्रथागत कानून बने रहेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह संवैधानिक रूप से संरक्षित अधिकार है और किसी भी सामान्य कानून को इन समुदायों पर बिना अधिसूचना के लागू नहीं किया जा सकता है।

हाईकोर्ट के निर्णय पर आई थी 2015 में अपील

2015 में हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने एक मामले में टिप्पणी की थी कि आदिवासी क्षेत्रों में बेटियों को संपत्ति में अधिकार हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत मिलना चाहिए। इस निर्णय को तिरिथ कुमार एवं अन्य बनाम दादूराम एवं अन्य (2024) में चुनौती दी गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस अपील पर सुनवाई करते हुए यह दोहराया कि अनुसूचित जनजातियों को इस अधिनियम के दायरे से स्पष्ट रूप से बाहर रखा गया है और हाईकोर्ट का निर्णय विधिक दृष्टि से अवैध है।

जनजातीय स्वशासन की अवधारणा को मिली मजबूती

यह फैसला उन आदिवासी समुदायों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है जो अपने पारंपरिक कानूनों और रिवाजों से शासन करते हैं। न्यायालय ने कहा कि जनजातीय कानूनों और रीति-रिवाजों को खत्म करना न केवल असंवैधानिक होगा, बल्कि यह भारत की सांस्कृतिक विविधता पर भी हमला होगा। संविधान की पाँचवीं अनुसूची के तहत राज्यपाल को यह दायित्व सौंपा गया है कि वह जनजातीय क्षेत्रों में लागू कानूनों की समीक्षा करें और यह सुनिश्चित करें कि वहाँ के पारंपरिक कानूनों और अधिकारों का सम्मान बना रहे।

इधर बॉम्बे हाईकोर्ट ने दिया मानवीय निर्णय

इसी बीच बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक अलग मामले में दो बेटियों को अपने 75 वर्षीय पिता की संपत्ति और बैंक खातों की देखरेख का कानूनी अधिकार (गार्जियनशिप) प्रदान किया है। पिता सिजोफ्रेनिया और अन्य मानसिक बीमारियों से ग्रस्त थे और वे अपने आर्थिक मामलों का निर्णय लेने में असमर्थ थे। न्यायमूर्ति रियाज छागला की पीठ ने यह आदेश देते हुए कहा कि परिवार के भीतर बेटियाँ भी समान रूप से पिता की संपत्ति और अधिकारों की रक्षा करने में सक्षम हैं।

आदिवासी समाज के लिए कई पुराने और ऐतिहासिक फैसले दिए है सुप्रीम कोर्ट ने

“जयपाल सिंह मुंडा बनाम बिहार राज्य (1962)” के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आदिवासी समुदाय की अपनी स्वतंत्र सामाजिक न्याय प्रणाली है, जो परंपरा पर आधारित है और उस पर बाहरी न्यायिक कानून थोपना अनुचित होगा। इसी तरह “साम्बा मुरारी बनाम मध्यप्रदेश राज्य (1979)” में भी अदालत ने कहा था कि जनजातीय रीति-रिवाज और परंपराएं संविधान के अनुच्छेद 13(3)(a) के तहत “कानून” के समान मानी जाती हैं और इनका संरक्षण अनिवार्य है।

आदिवासी कानूनों की रक्षा ही सामाजिक न्याय की जड़ है

सुप्रीम कोर्ट के इस नवीनतम निर्णय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि आदिवासी समाज के उत्तराधिकार और पारिवारिक मामलों में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम का हस्तक्षेप असंवैधानिक है। यह फैसला न केवल जनजातीय स्वशासन और सांस्कृतिक पहचान की रक्षा करता है, बल्कि भारत के संविधान की आत्मा, “विविधता में एकता” को भी सशक्त करता है।

न्यायपालिका का यह दृष्टिकोण आदिवासी अधिकारों की दिशा में ऐतिहासिक कदम है

यह निर्णय भविष्य में ऐसे सभी मामलों के लिए एक मिसाल बनेगा जहाँ जनजातीय समुदायों पर मुख्यधारा के सिविल या धार्मिक कानून लागू करने की कोशिश की जाती है। सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश न केवल न्यायिक विवेक का प्रतीक है, बल्कि यह भारत के संविधान के उस मूल दर्शन को पुनर्स्थापित करता है जो प्रत्येक समुदाय को अपने जीवन, संस्कृति और परंपराओं के साथ जीने का अधिकार देता है।

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