मुंबई, महाराष्ट्र! बंबई उच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय में स्पष्ट कर दिया है कि जब कोई भवन असुरक्षित घोषित कर दिया जाए तो उसके विध्वंस में कोई भी निवासी या अल्पमत सदस्य आड़े नहीं आ सकता। न्यायमूर्ति जी.एस. कुलकर्णी और न्यायमूर्ति मंजूषा देशपांडे की खंडपीठ ने कहा कि नगर निकाय का यह धर्म और दायित्व है कि वह जनजीवन को संकट में डालने वाली संरचनाओं को तत्काल हटाए। व्यक्तिगत असहमति या अल्पमत की आपत्ति कभी भी जनसुरक्षा से ऊपर नहीं हो सकती। यह आदेश वसई (पश्चिम) की दीपांजलि सहकारी गृहनिर्माण सोसायटी तथा पुष्पांजलि सहकारी गृहनिर्माण सोसायटी की चार इमारतों के संदर्भ में दिया गया है, जिन्हें वसई-विरार नगर निगम ने फरवरी 2025 में “सी-1 संरचना” श्रेणी में रखा था। इस श्रेणी का तात्पर्य है कि वे भवन जीवन के लिए इतने खतरनाक हैं कि उनका तत्काल ध्वस्तीकरण अपरिहार्य है।
न्यायालय का यह रुख विरार में हुई हालिया त्रासदी की पृष्ठभूमि में और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है। 27 अगस्त को चार मंजिला अवैध इमारत का हिस्सा ढह गया था, जिसमें सत्रह लोगों की असमय मृत्यु हो गई और अनेक परिवार उजड़ गए। अदालत ने संकेत दिया कि ऐसी घटनाएँ नगर प्रशासन की लापरवाही अथवा निवासियों के बीच खींचतान के कारण नहीं दोहराई जानी चाहिए। मामले में प्रारंभिक दौर में परस्पर विरोधी ऑडिट रिपोर्टों के चलते उलझन अवश्य उत्पन्न हुई, किन्तु तकनीकी सलाहकार समिति ने गहन परीक्षण के उपरांत यह स्पष्ट किया कि इमारतें अब जीवनोपयोगी नहीं हैं। निगम ने तत्पश्चात जुलाई माह में निवासियों को घर खाली करने का आदेश जारी किया। न्यायालय ने यह भी चेतावनी दी कि यदि अधिकारी ऐसे मामलों में शिथिलता बरतते हैं तो उन्हें स्वयं उत्तरदायी ठहराया जाएगा।
इस निर्णय ने यह स्थापित कर दिया है कि भवन केवल ईंट-पत्थरों का ढेर नहीं होते, वे मानव जीवन की सुरक्षा से जुड़े होते हैं। और जब संरचना मृत्यु का निमंत्रण देने लगे, तो उसके संरक्षण में जिद करना न केवल अनुचित है, बल्कि अपराध भी है। बंबई उच्च न्यायालय का यह आदेश स्मरण कराता है कि समाज और शासन का प्रथम कर्तव्य नागरिकों के प्राणों की रक्षा है, अन्य सभी तर्क और असहमति उस परिधि के बाहर हैं।