नई दिल्ली/ देश की न्यायपालिका में एक बार फिर से हलचल मच गई है, क्योंकि इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ संसद में महाभियोग की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। जस्टिस वर्मा पर गंभीर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं, और उनके सरकारी आवास से कथित तौर पर भारी मात्रा में नकदी मिलने के बाद यह मामला राष्ट्रीय बहस का विषय बन गया है।
सूत्रों के अनुसार, संसद के दोनों सदनों – लोकसभा और राज्यसभा – में जस्टिस वर्मा को पद से हटाने का प्रस्ताव सोमवार को विधिवत रूप से नोटिस के तौर पर पेश किया गया। दिलचस्प बात यह है कि लोकसभा में सरकार, जबकि राज्यसभा में विपक्ष इस प्रस्ताव के पीछे एकमत दिखाई दे रहे हैं। लेकिन राजनीतिक समीकरणों में तब नया मोड़ आ गया जब उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़, जो राज्यसभा के सभापति भी होते हैं, ने अचानक अपने पद से इस्तीफा दे दिया। अब इस संवेदनशील और संवैधानिक जिम्मेदारी की बागडोर राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह के हाथ में आ गई है, जिनके निर्णय पर आगे की प्रक्रिया निर्भर करेगी। दिल्ली हाईकोर्ट में कार्यकाल के दौरान जस्टिस वर्मा के सरकारी आवास से कथित रूप से बड़ी मात्रा में नकदी मिलने की खबर सामने आई थी, जिसके बाद सीबीआई और ईडी जैसी एजेंसियों ने जांच शुरू की। आरोप है कि इस रकम का संबंध भ्रष्टाचार से है, हालांकि अब तक जस्टिस वर्मा ने न तो कोई सार्वजनिक सफाई दी है और न ही पद से इस्तीफा देने की मंशा जताई है।
संविधान के अनुच्छेद 124(4) और (5) के तहत सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के न्यायाधीशों को केवल संसद के विशेष प्रस्ताव के जरिए ही हटाया जा सकता है, जिसमें दोनों सदनों में विशेष बहुमत से पारित प्रस्ताव की आवश्यकता होती है। यह प्रक्रिया बेहद दुर्लभ और संवेदनशील होती है, क्योंकि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता से सीधे जुड़ी होती है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि धनखड़ के इस्तीफे के बाद यह मामला और भी जटिल हो गया है, क्योंकि उपसभापति हरिवंश सिंह की निष्पक्षता और निर्णय प्रक्रिया अब परीक्षा की कसौटी पर होगी।
इस पूरे घटनाक्रम ने न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के बीच शक्तियों के संतुलन को लेकर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। क्या जस्टिस वर्मा को हटाने का प्रस्ताव पारित होगा? क्या यह एक नई संवैधानिक बहस की शुरुआत होगी? क्या इस घटनाक्रम का असर देश की न्यायिक साख पर पड़ेगा? आने वाले दिन इन सभी सवालों का जवाब देंगे, लेकिन इतना तय है कि यह मामला अब महज एक न्यायिक अनुशासन का विषय नहीं रह गया, बल्कि यह एक संवैधानिक संकट का रूप लेता जा रहा है। अब देशभर की निगाहें अब संसद और राज्यसभा के उपसभापति पर टिकी हैं, जिनका अगला कदम न्याय, लोकतंत्र और जवाबदेही के भविष्य को परिभाषित करेगा।