Wednesday, April 9, 2025
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लाल श्याम शाह ने जल जंगल जमींन और गोंडवाना राज्य की मांग उठाया , पूरा न होने पर दे दिया था इस्तीफा

कोसो होड़ी लंकाकोट कांकेर -: गोंडवाना जनजाति आदिवासी के एक ऐसे लाल जिन्होंने भाषाई आधार पर गोंडवाना राज्य तथा जल जंगल जमीन की बात नहीं कबूल करने पर पैंतीस रुपये के टेलीग्राम से भेजा इस्तीफा ।

छत्तीसगढ़ के गोंडवाना जनजाति आदिवासी जमींदार-नेता की शोधपरक दिलचस्प कहानी लाल श्याम शाह के संघर्ष की दास्तान …

किताब लाल श्याम शाहः एक आदिवासी की कहानी के लेखक सुदीप ठाकुर हैं. ये किताब यश पब्लिशर्स ऐंड डिस्ट्रीब्यूटर्स से प्रकाशित हुई है.

आज जब देश में दहाई के अंक में गोंडवाना जनजाति आदिवासी नेता सत्ता और विपक्ष में रहते हुए भी न्यायालय में पैरवी न होने के कारण जनजाति आदिवासियों को वनाधिकार अर्थात जंगल के जमीन से विस्थावित करने का न्यायालय का आदेश आजाता है ऐसे में यह इतिहास और भी प्रासंगिक हो जाती है.

इसी तरह अब से 60 साल पहले कांग्रेस के रायपुर अधिवेशन के वक्त करीब 40,000 गोंडवाना जनजातिय समुदाय जल, जंगल और जमीन पर अपने हक की मांग करते हुए पहुंचे थे, और तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उनसे मिलकर ऐसा ही आश्वासन दिया था.

गोंडवाना जनजातिय समुदाय की मांग और बदले में आश्वासनों का लंबा इतिहास है. लेकिन गोंडवाना जनजाति समुदाय की तरह उनके नायकों और उनके संघर्ष का इतिहास भी उतनी ही उपेक्षित है. उन्हीं में से एक हैं लाल श्याम शाह, जो जनजातियों के बीच किंवदंती बन चुके है.

एक सौ एक साल पहले जन्मे शाह आज के राजनांदगांव जिले में जमींदारी रियासत मोहला-पानाबरस के जमींदार थे. चौकी से दो बार निर्दलीय विधायक और चांदा (अब चंद्रपुर) से एक बार सांसद चुने गए शाह ने 1964 में सिर्फ एक दिन संसद में बिताया और खिन्न होकर इस्तीफा दे दिया.

उन्होंने इस्तीफे में लिखाः
”हम गोंडवाना जनजाति आदिवासी ऐसे लोग हैं, जो अपने ही देश में शरणार्थी हैं.” शाह ने गोंड जनजाति आदिवासी बहुल सेंट्रल प्रॉविंस के इलाकों को अलग राज्य गोंडवाना का दर्जा देने की मांग अनसुनी होने पर कहा था, ”जब देश में नए प्रदेश सांस्कृतिक, भाषायी, भौगोलिक और ऐतिहासिक आधार पर कायम किए जा रहे हैं, हमारी गोंडवाना प्रांत की मांग की उपेक्षा क्या घोर अन्याय नहीं है?”

एक ऐसा नेता भी जिन्होंने पैंतीस रुपये के टेलीग्राम से भेजा इस्तीफा.
ऐसे समय में जब करोड़पति सांसदों, विधायकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है, देश में कभी एक ऐसा नेता भी हुआ, जिसे पैंतीस रुपये का टेलीग्राम करना तक भारी पड़ा था.

1950-60 के दशक में दो बार विधायक और एक बार सांसद चुने गए आदिवासी नेता लाल श्याम शाह ने कभी अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया और आदिवासियों के मुद्दों पर बार-बार इस्तीफा दिया था. विधायक बनने के बाद शाह ने मध्य भारत में जंगलों की अवैध कटाई का मुद्दा लगातार उठाया और मुख्यमंत्री से लेकर राष्ट्रपति तक को टेलीग्राम कर इसकी शिकायत की. शिकायत अनसुनी रही और शाह ने इस्तीफा दे दिया.

विधानसभा अध्यक्ष को भेजे एक टेलीग्राम में शाह ने जिक्र किया कि किस तरह उन्होंने पहले पंद्रह रुपये खर्च कर वन मंत्री को टेलीग्राम भेजा और फिर बाद में पैंतीस रुपये खर्च कर मुख्यमंत्री और राष्ट्रपति को टेलीग्राम भेजा था.

इस अनोखे आदिवासी नेता का जन्म 1 मई 1919 में छत्तीसगढ़ में हुआ था . 1951 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में वह राजनांदगांव जिले की चौकी विधानसभा क्षेत्र से हार गए थे, लेकिन उनकी याचिका पर वहां दोबारा चुनाव कराने पड़े थे. स्वतंत्र भारत का यह दिलचस्प मामला है, जब इस विधानसभा सीट पर पांच साल के कार्यकाल के दौरान चार बार चुनाव कराने पड़े. शाह ने ये सारे चुनाव कांग्रेसी उम्मीदवार के खिलाफ निर्दलीय की हैसियत से लड़े थे.

वर्ष 1956 में लाल श्याम शाह ने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था.
अब वह पूरी तरह से स्वतंत्र थे. इस बीच, उन्होंने छत्तीसगढ़ और विदर्भ के क्षेत्र में काफी यात्राएं कीं और अपने आंदोलन को विस्तार दिया. जंगलों में अवैध कटाई के विरोध साथ ही उन्होंने अपने आंदोलन को आदिवासी अस्मिता से जोड़कर और व्यापक कर लिया. वह आदिवासियों के एक बड़े आंदोलन की तैयारी कर रहे थे. भाषायी आधार पर राज्यों का पुनर्गठन हो चुका था, जिसका असर मध्य प्रदेश पर भी पड़ा था. पुनर्गठन के बाद विदर्भ वाला हिस्सा, बॉम्बे स्टेट में चला गया. वहीं बस्तर सहित पूरा छत्तीसगढ़ नए मध्य प्रदेश में आ गया. लाल श्याम शाह राज्यों के इस पुनर्गठन से खुश नहीं थे. जिस आधार पर राज्यों का गठन किया जा रहा था वह मुख्य आधार भाषाई व संस्कृति थी इस प्रकार से गोंडवाना राज्य भी बनना तय था। लेकिन कुछ स्वार्थी मनोवृत्ति नेताओं के द्वारा गोंडवाना राज्य बनाने ही नहीं दिया गया ताकि जनजाति समुदाय की अवनति बनी रहे और हुवा भी वही। वह आदिवासियों के लिए अलग गोंडवाना राज्य चाहते थे.

राज्यों के पुनर्गठन के दो महीने बाद ही फरवरी 1957 में दूसरे आम चुनाव और राज्यों के विधानसभा चुनाव तय थे. विधानसभा से इस्तीफा देने के बावजूद लाल श्याम शाह बखूबी जानते थे कि आदिवासियों के हक की लड़ाई राजनीतिक तौर पर ही लड़ी जा सकती है और इसके लिए जरूरी है कि आदिवासियों के बीच से अधिक से अधिक लोग देश की संसद और विधानसभाओं में जाएं. दूसरे आम चुनाव की सरगर्मियों के बीच 26 जनवरी, 1957 को आदिवासी सेवा मंडल के सभापति के रूप में उन्होंने, ‘आदिवासी भाई चेत जाइये’,शीर्षक से एक पर्चा निकाला. इसमें उन्होंने आदिवासी सभ्यता और संस्कृति को मिल रही चुनौतियों को रेखांकित किया और आदिवासियों को आगाह किया कि जब तक वे अपने मन से डर व संकोच न हटा दें, अपनी पुरानी जाति को नष्ट होने से नहीं बचा सकेंगे.

उन्होंने लिखा, …
“उन लोगों से जिनका धन संग्रह करना ही लक्ष्य है,
हमारी आकांक्षाएं बिल्कुल भिन्न हैं. इस भला चाहने वाली सरकार ने हमेशा हमारी उपेक्षा की है. सरकारी उच्च व निम्न स्तर पर क्या हो रहा है? हमेशा हमारी उन्नति जैसा कि हमारे देश के नेता कहते आ रहे हैं, रुपयों के आंकड़ों में तौली जाती है; परंतु भाग्य या दुर्भाग्य से हम यह सोचने व विश्वास करने लगे हैं कि हमारे विकास की ये योजनाएं हमें अपने उद्देश्य तक नहीं पहुंचाती हैं. हमारी वास्तविक इच्छाएं व आकांक्षाएं हमारी संस्कृति एकता की सुरक्षा में है. अब प्रश्न है कि यह कैसे संभव है? यदि इस प्रश्न पर बिना किसी राजनैतिक दृष्टिकोण के विचार किया जाए, तो इसका हल कठिन नहीं है. वर्तमान राजनैतिक दृष्टिकोण हमारी उन्नति व प्रगति के मार्ग में बहुत बड़ी रुकावट है. क्या राष्ट्रीय सरकार ने आदिवासी समस्या के साथ राजनीति को नहीं घुसेड़ दिया है? इसी तरह क्या राष्ट्रीय सरकार ने समाज विरोधी तत्वों को स्वार्थ सिद्धी का अवसर नहीं प्रदान किया है? हमारी नजर में सरकार और समाज विरोधी तत्व दोनों हमारे पतन के लिए जवाबदार हैं और इसलिए आदिवासियों की असली आवाज पर ध्यान दिया जाना चाहिए. बिल्कुल स्पष्ट तौर पर क्या जबकि नए प्रदेश सांस्कृतिक, भौगोलिक और ऐतिहासिक आधार पर कायम किए जा रहे हैं, हमारी गोंडवाना प्रांत की मांग की उपेक्षा घोर अन्याय है?”

लाल श्याम शाह स्पष्ट तौर पर आदिवासियों के लिए अलग राज्य की मांग कर रहे थे. राजनांदगांव से जारी किए गए इस पर्चे में उन्होंने लिखा, “हमारे सामने केवल एक ही रास्ता रह जाता है कि हम पूरे राष्ट्र में जितनी अधिक विधानसभा व लोकसभा की जगहों पर प्रजातांत्रिक तरीकों से चुनाव लड़कर अपनी वाजिब मांगों को रखें. हमारा उद्देश्य जीवन की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति-ऐसा जीवन जो सही मायने में सब शोषक ताकतों से जो हमारी प्रगति व उन्नति में बाधक हैं, रहित रहे. हमने तीर कमान और तराजू चिह्न देश के अलग-अलग हिस्सों में लेने का फैसला किया है. तीर कमान चुनाव चिह्न हमारी संस्कृति का सूचक और तराजू चिह्न सचाई और समानता का द्योतक है….”

यानी वह अपने आंदोलन को अधिक विस्तार के साथ देख रहे थे और इसके लिए चुनाव को एक जरिया मान रहे थे. खुद लाल श्याम शाह ने 1957 में चौकी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने के बजाए चांदा संसदीय क्षेत्र से लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया. राज्यों के पुनर्गठन का असर विधानसभा और लोकसभा क्षेत्रों के सीमांकन पर भी पड़ा था, जिसकी वजह से चांदा लोकसभा क्षेत्र अब मध्य प्रदेश के बजाए बॉम्बे स्टेट में आ गया था. हालांकि इससे लाल श्याम शाह को फर्क नहीं पड़ा. वैसे भी पानाबरस जमींदारी कभी चांदा जिले का ही हिस्सा थी. चांदा जिले में उनकी ननिहाल थी. चांदा की एक समृद्ध जमींदारी अहेरी (अब गढ़चिरोली जिले में) से उनकी काफी नजदीकी थी. लाल श्याम शाह और अहेरी के जमींदार राजे विश्वेश्वर राव आपस में रिश्तेदार होने के साथ ही गहरे मित्र भी थे. काफी बाद में लाल श्याम शाह के छोटे भाई निजाम शाह की एक बेटी स्नेहा का विवाह भी विश्वेश्वर राव के भाई बलवंत राव के बेटे धर्माराव से हुआ. हालांकि दोनों में एक बड़ा फर्क यह था कि जहां लाल श्याम शाह महाराज निजी संपत्ति और दैनिक जीवन में संत या कहें कि गांधीवादी किस्म के व्यक्ति थे, तो राजे विश्वेश्वर राव में राजा होने की एक ठसक थी. राजे विश्वेश्वर राव के पूर्वजों का चांदा के गोंड राजा से नजदीकी रिश्ता था और रियासतों के विलीनिकरण से पहले अहेरी जमींदारी का खासा दबदबा था. ब्रिटिश काल में अहेरी जमींदारी का आकार कई स्टेट्स से भी बड़ा था. राजे विश्वेश्वर राव के पूर्वजों की चांदा में भी खासी संपत्ति थी.

1988 में उनके देहांत के 12 साल बाद छत्तीसगढ़ राज्य बना. तब राज्य की 90 विधानसभा सीटों में से 34 आदिवासियों के लिए आरक्षित थीं, जिनकी संख्या अब घटकर 29 हो गई है! यानी एक बार फिर अन्याय!

ठाकुर ने पूरी कहानी अलग-अलग अध्यायों में बांटकर बताई है. लेकिन इसमें कोई कल्पना नहीं है क्योंकि उन्होंने तथ्यों को जुटाने के लिए पुराने दस्तावेज, गजट, अखबार, विधानसभा और संसद के रिकॉर्ड खंगाले हैं, इलाके में घूम-घूमकर लोगों से बात की है, शाह के रिश्तेदारों-परिचितों से मिलकर गहन शोध किया है.

इस इलाके के भूगोल, इतिहास और समाज से भली-भांति वाकिफ ठाकुर दरअसल शाह की कहानी बताते हुए परोक्ष रूप से गोंडवाना जनजाति आदिवासी के राजनैतिक-सामाजिक संघर्ष की भी कहानी बयान कर देते हैं, जो काफी सामयिक है.
अनिता शाह गोंड
छत्तीसगढ़ राज्य स्थापना दिवस के संदर्भ में विशेष लेख
प्रासंगिक व ऐतिहासिक
ये गीत हमर माटी के बखान हे
अरपा पैरी के धार
महानदी हे अपार
ईन्द्रावती हर पखारे तोर पंईया
महुं पांव पडों तोर भुंईया
जय हो जय हो छत्तीसगढी मैया

जमो छत्तीसगढिया मन ल छत्तीसगढ राज्य के स्थापना दिवस के हकन हकन के जबर बधाई लेकिन पुरखोति के पीरा अभी ले जनावत हे

छत्तीसगढ़ राज्य की स्थापना के लिए 1955 में मध्य प्रांत की विधानसभा में बात रखने वाले गोंडवाना के सपूत लाल श्याम शाह को भी याद कीजिए आज के दिन में उन्होंने सबसे पहले गोंडवाना प्रांत अर्थात मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ की बात उठाई थी।

हमर पुरखोति पानाबरस के माटी उपजास लाल श्याम सिंह ल जरूर जानव पढहव

मध्यप्रदेश विदर्भ छत्तीसगढ़ ओडिसा महाराष्ट्र तेलांगना उत्तरप्रदेश बिहार गोंडवाना देश है
सामयिक विचार
छत्तीसगढ़ स्थापना दिवस के इस अवसर पर सुदीप ठाकुर द्वारा लिखित “लालश्यामशाह एक आदिवासी की कहानी” जरूर महत्वपूर्ण हो जाती है इस किताब में सुदीप ठाकुर किताब की भूमिका में लिखते हैं कि-

“1955 में पुराने मध्यप्रदेश में पहली बार नागपुर स्थित विधानसभा में जब एक नए राज्य के गठन की मांग उठी थी तो उसके पीछे इस क्षेत्र का “आदिवासी बहुल होना एक बड़ा आधार था” छत्तीसगढ़ से चुनकर गए विधायकों ने तब छत्तीसगढ़ और गोंडवाना में बहुत फर्क नहीं किया था बल्कि नए राज्य के गठन के लिए जो प्रस्ताव रखा गया था उसमें उसका नाम गोंडवाना ही था 21 नवंबर 1955 को विधानसभा में नए राज्य के गठन से संबंधित प्रस्ताव में छत्तीसगढ़ के जिन विधायकों ने संबोधित किया था उनमें चौकी क्षेत्र से चुनकर आए निर्दलीय विधायक लाल श्याम शाह भी शामिल थे उन्होंने कहा मैं आपके सामने गोंडवाना के संबंध में ही बोलना चाहता हूं “इस प्रदेश में लाखों आदिवासी और दलित जनता रहती है जो कि बहुत गरीब है आप सब लोग इस बात को जानते हैं लेकिन मैं आपको बताना चाहता हूं कि मुगलों के पहले और उनके जमाने में भी इसे गोंडवाना कहा जाता था जब आयोग राज्य पुनर्गठन आयोग यहां आया था तो आदिवासी विभाग के मंत्री और मुख्यमंत्री दोनों ने गोंडवाना राज्य बनाने के लिए मेमोरेंडम दिया था जिस पर ध्यान नहीं दिया गया यह रहस्य की बात है।”

सुदीप ठाकुर आगे लिखते हैं कि” जब भूगोल बदलता है तो राजनीति भी बदलती है समाजशास्त्र भी मगर लाल श्याम शाह इन तीनों में संतुलन चाहते थे और जैसा कि उन्होंने 26 जनवरी 1957 को सवाल किया था “जब नए प्रदेश सांस्कृतिक भौगोलिक और ऐतिहासिक आधार पर कायम किए जा रहे हैं हमारी गोंडवाना प्रांत की मांग की उपेक्षा घोर अन्याय नहीं है?

इसके लिए एक अलग राज्य की लड़ाई दरअसल आदिवासी अस्मिता और सम्मान की लड़ाई थी सबसे अहम बात यह है कि उनका पूरा संघर्ष शांतिपूर्ण और गांधीवादी तरीकों पर आधारित था।

छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण जिन लोगों की विकास और विश्वास के लिए आज से 22 साल पहले किया गया था आज भी वह समुदाय हाशिए पर जीवन जीने के लिए विवश हैं आज अधिकार के लिए सड़क में लड़ाई लड़ रहे हैं छत्तीसगढ़ राज्य के पूरे भूभाग का 65 परसेंट क्षेत्र अनुसूचित क्षेत्र के अंतर्गत आता है और पूरे माडा क्षेत्र को मिलाकर देखें तो 80% भूभाग आदिवासी इलाका के अंतर्गत आता है आदिवासी इलाकों के लिए भारत का संविधान में पांचवी अनुसूची का प्रावधान है पांचवी अनुसूची के प्रावधान में इन क्षेत्रों के लिए प्रशासन में नियंत्रण दिया गया है परंतु आप सब जानते हैं आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासियों की प्रशासन में नियंत्रण तो दूर की बात ग्राम सभाओं में भी उनको जो अधिकार पेशा कानून के द्वारा संसद ने दिया था उस कानून को भी हाशिए पर रख दिया गया है चाहे उनकी वनाधिकार अधिनियम की बात कर ले या उनके खनिज संसाधनों पर औद्योगिक घरानों के द्वारा लूट की बात कर ले यह बात प्रदेश की अखबारों में आए दिन छपी होती हैं एक तरह से कहें तो जिन समुदाय के लोगों के विकास और उन्नति की मूल भावना को ध्यान में रखकर छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण किया गया था वह भावना को खत्म कर गैरों की महत्वाकांक्षा सिर चढ़कर बोल रही है।

भारत की आजादी के पश्चात पूरे देश में जब राज्यों का गठन भाषाई आधार पर किया जा रहा था यदि आप इतिहास खंगालेंगे तो पूरे प्रदेश जो आजादी के पश्चात बने हैं पूरे भाषाई आधार पर बनाए गए हैं इसी कड़ी में गोंडी भाषा के अनुसार गोंडवाना प्रदेश की मांग मध्य भारत में जब गोंड समुदाय ने उठाया तो उस दौरान समसामयिक राजनीति में दखल देने वाले नेताओं ने इसे नकार दिया इसकी पीड़ा छत्तीसगढ़ के पाना बरस के राजा लाल श्याम शाह भी लगातार अपने आजीवन सामाजिक राजनीतिक जीवन काल में आजीवन उठाते रहे छत्तीसगढ़ प्रांत बनने के बाद कई लोगों को स्वप्न दृष्टा के रूप में दिखाया और बताया जाता है लेकिन एक सच्चे माटी भक्त पाना बरस के जमीदार गोंडवाना के सपूत लाल श्याम शाह को किनारे लगा दिया गया। आज छत्तीसगढ़ राज्य की स्थापना दिवस मनाई जा रही है उन्होंने मध्यप्रदेश राज्य को गोंडवाना राज्य से नकार दिए जाने के पश्चात भी छत्तीसगढ़ क्षेत्र को गोंडवाना प्रदेश के नाम से स्थापित करने के लिए आजीवन संघर्ष किए परंतु इस तरह से गोंडवाना के लोगों को हाशिए पर रखकर कुचलने की कोशिश की गई वही परंपरा लाल श्याम शाह गोंड के साथ भी किया गया आज इसलिए याद किया जा रहा है छत्तीसगढ़ राज्य के गठन में लाल श्याम शाह गोंड की भी अति महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

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