Wednesday, April 9, 2025
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धारावाहिकों के जरिये बढाया जा रहा हैं अन्धविश्वास और डर

विनोद अनुपम (राष्ट्रिय फिल्म पुरूस्कार प्राप्त कला समीक्षक)

टेलीविजन की स्क्रीन पर एक औरत असाधारण लंबे बाल लहराते हुए किसी भी चीज को अपनी जद में ले लेती है। औरत की आंखें रंग बदल कर हरी हो जाती हैं और उसके लंबे नाखून बाहर आ जाते हैं। वह हवा में उड़ सकती है, उल्टा लटक सकती है। यह एक चैनल के प्राइम टाइम में चल रहे धारावाहिक ‘पिशाचिनी’ का दृश्य है। धारावाहिक की कहानी एक बडे़ परिवार से शुरू होती है, जहां बमुश्किल परिवार के लोग ‘पिशाचिनी’ को एक संदूक में कैद कर उसके आतंक से छुटकारा पाते हैं, लेकिन परिवार का एक बेटा और बहू इस लोभ में पिशाचिनी को आजाद कर देते हैं, ताकि वे अमीर बन सकें। पिशाचिनी उन्हें अमीर तो बना देती है, लेकिन उन्हें अपना गुलाम बना लेती है। बताया जाता है कि पिशाचिनी का लक्ष्य अधिक से अधिक लोगों को पिशाच बनाना है, ताकि उसकी ताकत बनी रहे। कमाल यह कि इसका प्रसारण सोमवार से शुक्रवार प्रतिदिन हो रहा है।

और बाकी के दो दिन भी खाली नहीं, शनिवार-रविवार को ‘नागिन’ का छठा सीजन जारी है। इसमें देश बचाने की जवाबदेही इच्छाधारी नागिन ने अपने कंधों पर उठा रखी है। वहां मनुष्य और नागिन में ऐसा घालमेल है कि आप समझ ही नहीं सकते कि कौन मनुष्य है और कौन नागिन। हाल ही झारखंड में तीन महिलाओं को गांव के लोगों ने इच्छाधारी नागिन कह पीट-पीट कर मार डाला। मारने वालों में एक महिला का बेटा भी है। वास्तव में जिस देश में अब भी डायन के नाम पर सैकड़ों महिलाएं हर वर्ष मार दी जाती हों, वहां पिशाचिनी और नागिन की ऐसी कहानियां कोई परिकल्पित कैसे कर सकता है और धूमधाम से उसके प्रसारण की अनुमति कैसे मिल सकती है? क्या वाकई हमने अपनी सारी सार्थक सोच बाजार के सामने समर्पित कर दी है? कथित पारिवारिक धारावाहिकों से आप असहमत हो सकते हैं, लेकिन इतना अवश्य था कि उनमें धार्मिक आस्था दिखती थी। अब उसका स्थान अंधविश्वास ने ले लिया।

जाहिर है चमकीले बाजार को समर्पित टेलीविजन की दुनिया में कुछ भी अनायास नहीं होता। असल में ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल की 2021 में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार देश के गांवों में टेलीविजन दर्शकों में अपूर्व इजाफा हुआ है। 2018 से 2020 में शहरों में टीवी की उपलब्धता में जहां 4 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई, वहीं गांवों में यह बढ़ोतरी 9 प्रतिशत देखी गई। एक तरफ गांवों से युवाओं के पलायन और गांवों के शहरों में सिमटने की बात, दूसरी ओर भारतीय गांवों में टीवी दर्शकों की संख्या में यह आकस्मिक बढ़ोतरी कई बातें रेखांकित भी करती है और कई बातों पर विचार के लिए हमें तैयार भी करती है।

टीवी दर्शकों की चिंता तब तक नहीं करता, जब तक कि वह दर्शक से उपभोक्ता में नहीं बदल जाए। अब गांव के अंदर तक जाती सड़कें और बगल से गुजरते राजमार्गों ने गांव को बाजार से जोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। जाहिर है इन नए दर्शकों को बांधे रखने के लिए टीवी के लिए अपने कंटेंट बदलने की बाध्यता हो गई। सवाल यह है कि अपने दर्शकों को धन्यवाद कहने का कौन सा तरीका है, कि उनके मन में बैठे अंधविश्वास और डर को दूर करने की बजाय उसे अपनी कहानियों से और भी मजबूत करने की कोशिश की जाए।

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