जंगलों को काटकर
जंगल सफारी बना रहे हैं ।
प्रकृति को बर्बाद कर
खेतों में जंगल उगा रहें हैं ।
बिरसा तुम्हारे जंगल हो रहे वीरान
लूट रही जल ,जंगल ,जमीन ।
लो जनम फिर से
लेकर तीर कमान ।
कर दो ऊल गुलाल फिर से
आदिवासियों में भर दो जान ।
तुमने तो लड़ा अंग्रजों से
जिसकी गोरा रंग था पहचान ।
आज तो अपनों के बीच
सराफत की मुखडा लगाकर
दुश्मन छुपे हैं
जिसकी नही कोई पहचान ।
दो धारी तलवार के बीच
नक्सल और फोर्स से
निर्दोष आदिवासी हो रहे कुर्बान ।
सोमती सिदार, पुसौर, रायगढ़ (छत्तीसगढ़)
कविता संग्रह:- सोमती सिदार, पुसौर, रायगढ़ (छत्तीसगढ़)